सोमवार, 2 जून 2014

मात्रा रस्व/दीर्घ/प्लुत उच्चार


मात्रा रस्व/दीर्घ/प्लुत उच्चार

संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय है अर्थात् छंदबद्ध और गेय हैं । इस लिए यह समज लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढते या बोलते वक्त किन अक्षरों या वर्णों पर ज़ादा भार देना और किन पर कम । उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को “मात्रा” द्वारा दर्शाया जाता है ।
*   जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रा 1 होती है । अ, इ, उ, लृ, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं ।
*   जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रा 2 होती है । आ, ई, ऊ, ॡ, ॠ ये दीर्घ स्वर हैं ।
*   प्लुत वर्णों का उच्चार अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रा 3 होती है जैसे कि, “नाऽस्ति” इस शब्द में ‘नाऽस्’ की 3 मात्रा होगी । वैसे हि “वाक्पटु” इस शब्द में ‘वाक्’ की 3 मात्रा होती है । वेदों में जहाँ 3 (तीन) संख्या दी हुई रहती है, उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है ।
*   संयुक्त वर्णों का उच्चार उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिए । पूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी 2 मात्रा हो जाती है; और पूर्व अगर दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी 3 मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है ।
*   अनुस्वार और विसर्ग – ये स्वराश्रित होने से, जिन स्वरों से वे जुडते हैं उनकी 2 मात्रा होती है । परंतु, ये अगर दीर्घ स्वरों से जुडे, तो उनकी मात्रा में कोई फर्क नहीं पडता (वह 2 ही रहती है) ।
*   हलन्त वर्णों (स्वरहीन व्यंजन) की पृथक् कोई मात्रा नहीं होती ।
*   ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘।‘ है, और दीर्घ मात्रा का ‘ऽ‘ ।
*   पद्य रचनाओं में, छंदों के पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरु मान लिया जाता है ।

समजने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है । 


नीचे दिये गये उदाहरण देखिए :
राम = रा (2) + म (1) = 3 याने “राम” शब्द की मात्रा 3 हुई ।
वनम् = व (1) + न (1) + म् (0) = 2
मीमांसा = मी (2) + मां (2) + सा (2) = 6
पूर्ववत् = पूर् (2) + व (1) + व (1) + त् (0) = 4
ग्रीष्मः = ग्रीष् (3) + म: (2) = 5
शिशिरः = शि (1) + शि (1) + रः (2) = 4
कार्तिकः = कार् (2) + ति (1) + कः (2) = 5
कृष्णः = कृष् (2) + णः (2) = 4
हृदयं = हृ (1) + द (1) + यं (2) = 4
माला = मा (2) + ला (2) = 4
त्रयोदशः = त्र (1) + यो (2) + द (1) + शः (2) = 6

संस्कृत छंदों को समजने के लिए मात्राओं का ज्ञान होना अति आवश्यक है । मात्रा के नियम उच्चारशास्त्र के सर्व सामान्य नियम हैं, और इनके बिना संस्कृत भाषा में शुद्धि अशक्य है । छंदों की सामान्य माहिती इस वेब साइट में अन्य स्थान पर दी गयी है । मात्राओं का अधिकतम उपयोग उस विभाग में आप देख पायेंगे ।    

अन्य भारतीय भाषाओं का उद्गम संस्कृत होने से, उन में भी मात्रा व छंदों के ये ही नियम पाये जाते हैं ।

विसर्ग



विसर्ग
जैसे आगे बताया गया है, विसर्ग यह अपने आप में कोई अलग वर्ण नहीं है; वह केवल स्वराश्रित है । विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने से उसे पूर्णतया शुद्ध लिखा नहीं जा सकता, क्यों कि विसर्ग अपने आप में हि किसी उच्चार का प्रतिक मात्र है ! किसी भाषातज्ज्ञ के द्वारा उसे प्रत्यक्ष सीख लेना ही जादा उपयुक्त होगा।  
विसर्ग के पहले हृस्व स्वर/व्यंजन हो तो उसका उच्चार त्वरित ‘ह’ जैसा करना चाहिए; और यदि विसर्ग के पहले दीर्घ स्वर/व्यंजन हो तो विसर्ग का उच्चार त्वरित ‘हा’ जैसा करना चाहिए।

विसर्ग के पूर्व ‘अ’कार हो तो विसर्ग का उच्चार ‘ह’ जैसा; ‘आ’ हो तो ‘हा’ जैसा; ‘ओ’ हो तो ‘हो’ जैसा, ‘इ’ हो तो ‘हि’ जैसा... इत्यादि होता है । पर विसर्ग के पूर्व अगर ‘ऐ’कार हो तो विसर्ग का उच्चार ‘हि’ जैसा होताहै।

केशवः = केशव (ह)
बालाः = बाला (हा)
भोः = भो (हो)
मतिः = मति (हि)
चक्षुः = चक्षु (हु)
देवैः = देवै (हि)
भूमेः = भूमे (हे)

पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उसका उच्चार आघात देकर ‘ह’ जैसा करना चाहिए।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्वि
ष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।  

विसर्ग के बाद अघोष (कठोर) व्यंजन आता हो, तो विसर्ग का उच्चार आघात देकर ‘ह’ जैसा करना चाहिए
प्रण
तः क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः । 

विसर्ग के बाद यदि ‘श’, ‘ष’, या ‘स’ आए, तो विसर्ग का उच्चार अनुक्रम से ‘श’, ‘ष’, या ‘स’ करना चाहिए
यज्ञशिष्टाशि
नः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
यज्ञशिष्टाशि
न(स्)सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः । 

धनञ्जयः सर्वः = धनञ्जयस्सर्वः
श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः
गंधर्वाः षट् = गंधर्वाष्षट्

‘सः’ के सामने (बाद) ‘अ’ आने पर दोनों का ‘सोऽ’ बन जाता है; और ‘सः’ का विसर्ग, ‘अ’ के सिवा अन्य वर्ण सम्मुख आने पर, लुप्त हो जाता है ।
सः अस्ति = सोऽस्ति
सः अवदत् = सोऽवदत्  

विसर्ग के पहले ‘अ’कार हो और उसके पश्चात् मृदु व्यञ्जन आता हो, तो वे अकार और विसर्ग मिलकर ‘ओ’ बन जाता है ।
पुत्रः गतः = पुत्रो गतः
रामः ददाति = रामो ददाति 

विसर्ग के पहले ‘आ’कार हो और उसके पश्चात् स्वर अथवा मृदु व्यञ्जन आता हो, तो विसर्ग का लोप हो जाता है ।
असुराः नष्टाः = असुरा नष्टाः
मनुष्याः अवदन् = मनुष्या अवदन् 

विसर्ग के पहले ‘अ’ या ‘आ’कार को छोडकर अन्य स्वर आता हो, और उसके बाद स्वर अथवा मृदु व्यञ्जन आता हो, तो विसर्ग का ‘र्’ बन जाता है ।
भानुः उदेति = भानुरुदेति
दैवैः दत्तम् = दैवैर्दत्तम्  

विसर्ग के पहले ‘अ’ या ‘आ’कार को छोडकर अन्य स्वर आता हो, और उसके बाद ‘र’कार आता हो, तो, विसर्ग के पहले आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है ।
ऋषिभिः रचितम् = ऋषिभी रचितम्
भानुः राधते = भानू राधते
शस्त्रैः रक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्

संन्धि



संन्धि
सामान्य संधि नियम जैसे कि पहले बताया गया है, संस्कृत में व्यंजन और स्वर के योग से ही अक्षर बनते हैं । संधि के विशेष नियम हम आगे देखेंगे, पर उसका सामान्य नियम यह है कि संस्कृत में व्यंजन और स्वर आमने सामने आते ही वे जुड जाते हैं;

पुष्पम् आनयति = पुष्पमानयति

शीघ्रम् आगच्छति = शीघ्रमागच्छति
त्वम् अपि = त्वमपि

संस्कृत में संधि के इतने व्यापक नियम हैं कि सारा का सारा वाक्य संधि करके एक शब्द स्वरुप में लिखा जा सकता है; देखिए -

ततस्तमुपकारकमाचार्यमालोक्येश्वरभावनायाह ।
अर्थात् – ततः तम् उपकारकम् आचार्यम् आलोक्य ईश्वर-भावनया आह । 

इसके सारे नियम बताना यहाँ अनपेक्षित होगा, परंतु, सामान्यतः संधि तीन तरह की होती है; स्वर संधि, विसर्ग संधि, और व्यंजन संधि । विसर्ग संधि के सामान्य नियम हम “विसर्ग” प्रकरण में देख चूके हैं । स्वर और व्यंजन संधि की सामान्य जानकारी व उदाहरण नीचे दीये जा रहे हैं ।  

सजातीय स्वर आमने सामने आने पर, वह दीर्घ स्वर बन जाता है; जैसे,

अ / आ + अ / आ = आ 

अत्र + अस्ति = अत्रास्ति
भव्या + आकृतिः = भव्याकृतिः
कदा + अपि = कदापि

इ / ई + इ / ई = ई 

देवी + ईक्षते = देवीक्षते
पिबामि + इति = पिबामीति
गौरी + इदम् = गौरीदम्

उ / ऊ + उ / ऊ = ऊ 

साधु + उक्तम = साधूक्तम्
बाहु + ऊर्ध्व = बाहूर्ध्व

ऋ / ऋ + ऋ / ऋ = ऋ 

पितृ + ऋणम् = पितृणम्
मातृ + ऋणी = मातृणी 

जब विजातीय स्वर एक मेक के सामने आते हैं, तब निम्न प्रकार संधि होती है ।
अ / आ + इ / ई = ए
अ / आ + उ / ऊ = ओ
अ / आ + ए / ऐ = ऐ
अ / आ + औ / अ = औ
अ / आ + ऋ / ऋ = अर् 
उदाहरणउद्यमेन + इच्छति = उद्यमेनेच्छति
तव + उत्कर्षः = तवोत्कर्षः
मम + एव = ममैव
कर्णस्य + औदार्यम् = कर्णस्यौदार्यम्
राजा + ऋषिः = राजर्षिः  

परंतु, ये हि स्वर यदि आगे-पीछे हो जाय, तो इनकी संधि अलग प्रकार से होती है;
इ / ई + अ / आ = य / या
उ / ऊ + अ / आ = व / वा
ऋ / ऋ + अ / आ = र / रा 
उदाहरणअवनी + असम = अवन्यसम
आदि + आपदा = आद्यापदा
भवतु + असुरः = भवत्वसुरः
उपविशतु + आर्यः = उपविशत्वार्यः
पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा
मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा  

उपर दिये हुए “य” और “व” की जगह, “अय्”, “आय्”, “अव्” या “आव्” एसी संधि भी होती है, जैसे;
ए + अन्य स्वर = अय्
ऐ + अन्य स्वर = आय्
ओ + अन्य स्वर = अव्
औ + अन्य स्वर = आव्  
उदाहरणमन्यते + आत्मानम् = मन्यतयात्मानम्
तस्मै + अदर्शयत् = तस्मायदर्शयत्
प्रभो + एहि = प्रभवेहि
रात्रौ + एव = रात्रावेव

परंतु, “ए” या “ओ” के सामने “अ” आये, तो “अ” लुप्त होता है, और उसकी जगह पर “ऽ“ (अवग्रह चिह्न) प्रयुक्त होता है ।
वने + अस्मिन् = वनेऽस्मिन्
गुरो + अहम् = गुरोऽहम्  
व्यंजन संधि
व्यंजन संधि के काफी नियम हैं, पर नियमों के जरीये इन्हें सीखना याने इन्हें अत्यधिक कठिन बनाने जैसा होगा ! इस लिए केवल कुछ उदाहरणों के ज़रीये इन्हें समजने का प्रयत्न करते हैं;

ग्रामम् + अटति = ग्राममटति
देवम् + वन्दते = देवं वन्दते

ग्रामात् + आगच्छति = ग्रामादागच्छति
सम्यक् + आह = सम्यगाह
परिव्राट् + अस्ति = परिव्राडस्ति

सन् + अच्युतः = सन्नच्युतः
अस्मिन् + अरण्ये = अस्मिन्नरण्ये

छात्रान् + तान् = छात्रांस्तान्

अपश्यत् + लोकः = अपश्यल्लोकः
तान् + लोकान् = ताँल्लोकान्

एतत् + श्रुत्वा = एतत्छ्रुत्वा
वृक्ष + छाया = वृक्षच्छाया
आ + छादनम् = आच्छादनम्

अवदत् + च = अवदच्च
षट् + मासाः = षण्मासाः

सम्यक् + हतः = सम्यग्घतः / सम्यग् हतः
एतद् + हितम् = एतद्धितम् / एतद्हितम्

छन्‍द

                          

                                                             छन्‍द

छन्‍द रचना छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है । इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनन्द देने वाला’ । लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर प्रभाव डाल कर उसे एक विषय में स्थिर कर देती है और मनुष्य उससे प्राप्त आनन्द में डूब जाता है । यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है. इसका दूसरा नाम वृत्त है । वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना । वृत्त भी छन्द को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है । यही कारण है कि सभी वेद छन्द-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे ।

छन्दों के भेद: छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं: 1) मात्रिक और 2) वार्णिक
1)  मात्रिक छन्द: मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है ।
2)  वार्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या निश्चित होती है और इनमें लघु और दीर्घ का क्रम भी निश्चित होता है, जब कि मात्रिक छन्दों में इस क्रम का होना अनिवार्य नहीं है । मात्रा और वर्ण किसे कहते हैं, इन्हें समझिए:

मात्रा: ह्रस्व स्वर जैसे ‘अ’ की एक मात्रा और दीर्घस्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । यदि ह्रस्व स्वर के बाद संयुक्त वर्ण, अनुस्वार अथवा विसर्ग हो तब ह्रस्व स्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरु मान लिया जाता है । ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘ ।‘ यह है और दीर्घ का ‘=‘ है । जैसे ‘सत्याग्रह’ शब्द में कितनी मात्राएँ हैं, इसे हम इस प्रकार समझेंगे:
= = । ।
सत्याग्रह = 6
इस प्रकार हमें पता चल गया कि इस शब्द में छह मात्राएँ हैं । स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती ।

वर्ण या अक्षर: ह्रस्व मात्रा वाला वर्ण लघु और दीर्घ मात्रा वाला वर्ण गुरु कहलाता है । यहाँ भी ‘सत्याग्रह’ वाला नियम समझ लेना चाहिए ।

चरण अथवा पाद: ‘पाद’ का अर्थ है चतुर्थांश, और ‘चरण’ उसका पर्यायवाची शब्द है । प्रत्येक छन्द के प्रायः चार चरण या पाद होते हैं ।

सम और विषमपाद: पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।

यति: हम किसी पद्य को गाते हुए जिस स्थान पर रुकते हैं, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रायः प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त में तो यति होती ही है, बीच बीच में भी उसका स्थान निश्चित होता है । प्रत्येक छन्द की यति भिन्न भिन्न मात्राओं या वर्णों के बाद प्रायः होती है ।
छन्‍द तीन प्रकार के होते है।

वर्णिक छंद (या वृत) - जिस छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान हो।
मात्रिक छंद (या जाति) - जिस छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान हो।
मुक्त छंद - जिस छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो।
वर्णिक छंद
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।
प्रमुख वर्णिक छंद : प्रमाणिका (8 वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी 11 वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी 12 वर्ण); वसंततिलका (14 वर्ण); मालिनी (15 वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी 16 वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी 17 वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (19 वर्ण), स्त्रग्धरा (21 वर्ण), सवैया (22 से 26 वर्ण), घनाक्षरी (31 वर्ण) रूपघनाक्षरी (32 वर्ण), देवघनाक्षरी (33 वर्ण), कवित्त / मनहरण (31-33 वर्ण)।
मात्रिक छंद
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
प्रमुख मात्रिक छंद

सम मात्रिक छंद : अहीर (11 मात्रा), तोमर (12 मात्रा), मानव (14 मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी 16 मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों 19 मात्रा), राधिका (22 मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा), गीतिका (26 मात्रा), सरसी (27 मात्रा), सार (28 मात्रा), हरिगीतिका (28 मात्रा), तांटक (30 मात्रा), वीर या आल्हा (31 मात्रा)।
अर्द्धसम मात्रिक छंद : बरवै (विषम चरण में - 12 मात्रा, सम चरण में - 7 मात्रा), दोहा (विषम - 13, सम - 11), सोरठा (दोहा का उल्टा), उल्लाला (विषम - 15, सम - 13)।
विषम मात्रिक छंद : कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + अल्लाला)।
मुक्त छंद
जिस विषय छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।
उदाहरण : निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।


मात्रिक छन्‍द
दोहा संस्कृत में इस का नाम दोहडिका छन्द है । इसके विषम चरणों में तेरह-तेरह और सम चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं । विषम चरणों के आदि में  ।ऽ । (जगण) इस प्रकार का मात्रा-क्रम नहीं होना चाहिए और अंत में गुरु और लघु (ऽ ।) वर्ण होने चाहिए । सम चरणों की तुक आपस में मिलनी चाहिए । जैसे:
।ऽ  ।ऽ   ।  । ऽ   । ऽ   ऽऽ ऽ  ऽऽ  ।
महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि ।
विधेहि कर्म सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥   

इस दोहे को पहली पंक्ति में विषम और सम दोनों चरणों पर मात्राचिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में भी आप दोनों चरणों पर ये चिह्न लगा सकते हैं । अतः दोहा एक अर्धसम मात्रिक छन्द है ।
हरिगीतिका हरिगीतिका छन्द में प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु और फिर गुरु वर्ण अवश्य होना चाहिए । इसमें यति 16 तथा 12 मात्राओं के बाद होती हैं; जैसे

।  ।  ऽ  । ऽ ऽ  ऽ ।ऽ   ।  ।ऽ  । ऽ ऽ  ऽ  । ऽ 
मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा ।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः ।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥
इस छन्द की भी प्रथम पंक्ति में मात्राचिह्न लगा दिए हैं । शेष पर स्वयं लगाइए ।

गीतिका इस छन्द में प्रत्येक चरण में छब्बीस मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यति होती है । जैसे:

ऽ  । ऽ  ॥  ऽ । ऽ  ऽ  ऽ  । ऽ ऽ ऽ  । ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम् ।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम् ॥

ऊपर पहले चरण पर मात्रा-चिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार सारे चरणों में आप चिह्न लगा कर मात्राओं की गणना कर सकते हैं ।
वर्णिक छन्‍द वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं । तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं । इन गणों के नाम हैं: यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण । अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं । किस गण में लघु-गुरु का क्या क्रम है, यह जानने के लिए यह सूत्र याद कर लीजिए:

यमाताराजभानसलगा:

जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड लीजिए और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगाइए, जैसे:

यगण - यमाता = ।ऽऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽऽऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज = ऽऽ । अन्तलघु
रगण - राजभा = ऽ ।ऽ मध्यलघु
जगण - जभान = ।ऽ । मध्यगुरु
भगण - भानस = ऽ ॥ आदिगुरु
नगण - नसल = ॥ । सर्वलघु
सगण - सलगाः = ॥ऽ अन्तगुरु

मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है । जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया । नीचे सब गणों के स्वरुप का एक श्लोक दिया जा रहा है । उसे याद कर लीजिए:


मस्त्रिगुरुः त्रिलघुश्च नकारो,
भादिगुरुः पुनरादिर्लघुर्यः ।
जो गुरुम्ध्यगतो र-लमध्यः,
सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुःतः ॥

अब कुछ वर्णिक छन्दों का परिचय दिया जा रहा है:
अनुष्‍टुप इस छन्द को श्लोक भी कहते हैं । इसके अनेक भेद हैं, परंतु जिस का अधिकतर व्यवहार हो रहा है, उसका लक्षण इस प्रकार से है:

श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् ।
द्विचतुः पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥
यह छन्द अर्धसमवृत्त है । इस के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं । पहले चार वर्ण किसी भी मात्रा के हो सकते हैं । छठा वर्ण गुरु और पाँचवाँ लघु होता है । सम चरणों में सातवाँ वर्ण ह्रस्व और विषम चरणों में गुरु होता है, जैसे:
।ऽ ऽ ऽ       । ऽ । ऽ
लोकानुग्रहकर्तारः, प्रवर्धन्ते नरेश्वराः ।
लोकानां संक्षयाच्चैव, क्षयं यान्ति न संशयः ॥ पंचतंत्र/मित्रभेद/169

गीता, रामायण, महाभारत आदि में इसी छन्द का बाहुल्य है ।
शार्दूलविक्रीडित शार्दूलविक्रीडित छन्द के प्रत्येक चरण में 19 वर्ण निम्नलिखित क्रम से होते हैं: 

सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम् ।

सूर्य (12) और अश्व (7) पर जिसमें यति होती है और जहाँ वर्ण मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण और एक गुरु के क्रम से रखे जाते हैं, वह शार्दूलविक्रीडित छन्द होता है; जैसे:
ऽ ऽ ऽ  ।  ।   ऽ  । ऽ  ।  ॥ ऽ  ऽ ऽ  । ऽ  ऽ । ऽ
रे रे चातक ! सावधान-मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्
अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वे तु नैतादृशाः ।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥ नीति./47

इस प्रकार यहाँ 3 मात्रिक और 12 वर्णिक महत्त्वपूर्ण छ्न्दों का परिचय दिया गया है ।
शिखरिणी शिखरिणी छन्द के प्रत्येक पाद में 17 वर्ण होते हैं और पहले 6 तथा फिर 11 वर्णों के बाद यति होती है । इस का लक्षण इस प्रकार से है:

रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी

जिसमें यगण, मगण, नगण, सगण, भगण और लघु तथा गुरु के क्रम से प्रत्येक चरण में वर्ण रखे जाते हैं और 6 तथा 11 वर्णों के बाद यति होती है, उसे शिखरिणी छन्द कहते हैं; जैसे:
। ऽ  ऽ  ऽ   ऽ ऽ   ॥   ॥  । ऽ ऽ ॥  ।ऽ
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादधिगतं 
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥ नीतिशतक/7
इन्‍द्रवज्रा इन्द्रवज्रा छन्द के प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं । इस का लक्षण इस प्रकार से है:

स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः ।

इसका अर्थ है कि इन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु के क्रम से वर्ण रखे जाते हैं । इसका स्वरुप इस प्रकार से है:
ऽऽ ।      ऽऽ ।      ।ऽ ।       ऽऽ
तगण    तगण       जगण     दो गुरु

इन्द्रवज्रा छन्द के प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं । इस का लक्षण इस प्रकार से है:

स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः ।

इसका अर्थ है कि इन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु के क्रम से वर्ण रखे जाते हैं । इसका स्वरुप इस प्रकार से है:
ऽऽ ।      ऽऽ ।      ।ऽ ।       ऽऽ
तगण    तगण       जगण     दो गुरु

उदाहरण:
ऽ ऽ ।  ऽऽ   ।  । ऽ ।  ऽ ऽ
विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः
प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः ।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो,
सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥

यहाँ प्रत्येक पंक्ति में प्रथम पंक्ति वाले ही वर्णों का क्रम है । अतः यहाँ इन्द्रवज्रा छन्द है ।
मन्‍दाक्रांता मन्दाक्रान्ता छन्द में प्रत्येक चरण में मगण, भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु वर्णों पर यति होती है । यही बात इस लक्षण में कही गई है:

मन्दाक्रान्ताऽभ्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ ग-युग्मम् ।
क्यों कि अम्बुधि (सागर) 4 हैं, रस 6 हैं, और नग (पर्वत) 7 हैं, अतः इस क्रम से यति होगी और मगण, भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु वर्ण होंगे ।
उदाहरण:
ऽ ऽ ऽ ऽ   ॥  ।  ॥ ऽ  ऽ  ।  ऽ  ऽ । ऽ ऽ
यद्वा तद्वा विषमपतितः साधु वा गर्हितं वा
कालापेक्षी हृदयनिहितं बुद्धिमान् कर्म कुर्यात् ।
किं गाण्डीवस्फुरदुरुघनस्फालनक्रूरपाणिः
नासील्लीलानटनविलखन् मेखली सव्यसाची॥
उपेन्‍द्रवज्रा इस छन्द के भी प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं । लक्षण इस प्रकार से हैं:

उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ

इस का अर्थ यह है कि उपेन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में जगण, तगण, जगण और दो गुरु वर्णों के क्रम से वर्ण होते हैं । इस का स्वरुप इस प्रकार से है:
।ऽ ।         ऽऽ ।       ।ऽ ।         ऽऽ
जगण       तगण       जगण       दो गुरु
उदाहरण:
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त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव-देव॥
(अंतिम ‘व’ लघु होते हुए भी गुरु माना गया है ।
उपजाति छन्‍द जिस छन्द में कोई चरण इन्द्रवज्रा का हो और कोई उपेन्द्रवज्रा का, उसे उपजाति छन्द कह्ते हैं । इसका लक्षण और उदाहरण पद्य में देखिए:

अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ
पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।
इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु
वदन्ति जातिष्विदमेव नाम॥
अर्थात् इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा अथवा अन्य प्रकार के छन्द जब मिलकर एक रुप ग्रहण कर लेते हैं, तो उसे उपजाति कहते हैं ।

साहित्यसङ्गीत कला-विहीनः
साक्षात्पशुः पृच्छ-विषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः
तद्भागधेयं परमं पशुनाम्॥  नीतिशतकम् ॥

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य 
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥ कुमारसंभवम् ॥
मालिनी छन्‍द मालिनी 15 वर्णों का छन्द है, जिसका लक्षण इस प्रकार से है:

न-न-मयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः ।

इसका अर्थ है कि मालिनी छन्द में प्रत्येक चरण में नगण, नगण, मगण और दो यगणों के क्रम से 15 वर्ण होते हैं और इसमें यति आठवें और सातवें वर्णों के बाद होती है; जैसे :
।  ॥  ।   ॥ ऽ ऽ  ऽ  । ऽ  ऽ  । ऽ ऽ
वयमिह परितुष्टाः वल्कलैस्त्वं दुकूलैः
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः ।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला 
मनसि तु परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥ वैराग्यशतक /45
द्रुतविलंबित छन्‍द इस छन्द के प्रत्येक चरण में 12-12 वर्ण होते हैं, जिस का लक्षण और स्वरुप निम्नलिखित है:

द्रुतविलम्बितमाहो नभौ भरौ

अर्थात् द्रुतविलम्बित छ्न्द के प्रत्येक चरण में नगण, भगण, भगण और रगण के क्रम से 12 वर्ण होते हैं ।
।  ।  ।  ऽ ॥ ऽ   ।  ।ऽ   । ऽ
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ 
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥ नीतिशतकम् / 59
वसन्‍ततिलका छन्‍द यह चौदह वर्णों का छन्द है । तगण, भगण, जगण, जगण और दो गुरुओं के क्रम से इसका प्रत्येक चरण बनता है । पद्य में लक्षण तथा उदाहरण देखिए:

उक्ता वसन्ततिलका तभजाः जगौ गः ।

उदाहरण:
ऽ ऽ  । ऽ ।  ।  ।ऽ  ।  । ऽ  । ऽ ऽ
हे हेमकार परदुःख-विचार-मूढ
किं मां मुहुः क्षिपसि वार-शतानि वह्नौ ।
सन्दीप्यते मयि तु सुप्रगुणातिरेको-
लाभः परं तव मुखे खलु भस्मपातः॥
भुजङ्गप्रयातं छन्‍द
इस छन्द में चार यगणों के क्रम से प्रत्येक चरण बनता है, जिसका पद्य-लक्षण और स्वरुप यह है:

भुजङ्गप्रयातं चतुर्भिर्यकारैः
उदाहरण:
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प्रभो ! देशरक्षा बलं मे प्रयच्छ
नमस्तेऽस्तु देवेश ! बुद्धिं च यच्छ ।
सुतास्ते वयं शूरवीरा भवाम
गुरुन् मातरं चापि तातं नमाम॥
वदन्ति वंशस्थविल: छन्‍द
इस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, तगण, जगण और रगण के क्रम से 12 वर्ण होते हैं । पद्य में लक्षण और उदाहरण देखिए:

वदन्ति वंशस्थविलं जतौ जरौ
उदाहरण:
।  ऽ  ।  ऽ ऽ  ॥ ऽ   । ऽ  । ऽ
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते
न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च॥ श्वेताश्वतर/6/8